किराया क्रय पद्धति (Hire Purchase System)
आधुनिक वाणिज्य के युग में व्यापारी तथा उत्पादक अपने माल का विक्रय बढ़ाने के उद्देश्य से नई-नई पद्धतियाँ अपनाते हैं।
इस युग में माल बेचने की नकद या उधार प्रणाली के अतिरिक्त एक नई प्रणाली का उदय हुआ है, जिसे किराया क्रय पद्धति का नाम दिया गया है, इस प्रणाली में माल न तो नकद बेचा जाता है और न ही उधार, वरन् बीच का मार्ग अपनाया जाता है।
किराया क्रय पद्धति (Hire Purchase System )- एक ऐसी प्रणाली से जिसमें एक समझौते या अुनबन्ध के आधार पर माल विक्रेता द्वारा क्रेता को सौंप दिया जाता है, और क्रेता माल की कीमत निश्चित अवधि में निर्धारित किश्तों में चुकाने का वचन देता है, जब तक माल की सम्पूर्ण कीमत नहीं चुका दी जाती तब तक माल पर विक्रेता का स्वामित्व रहता है, जैसे ही पूरी कीमत विक्रेता को प्राप्त हो जाती है, क्रेता इस माल का स्वामी बन जाता है।
यदि क्रेता किश्त के भुगतान में त्रुटि करता है, तो विक्रेता माल को वापस ले सकता है। ऐसी दशा में जितनी किश्तों का भुगतान हो चुका है, उन्हें माल के प्रयोग का किराया मान लिया जाता है, इसलिए इसे किराया क्रय प्रणाली कहते हैं।
Hire Purchase System
भारतीय किराया क्रय अधिनियम 1972 की धारा 2(c) के अनुसार-
“ किराया क्रय ठहराव एक ऐसा ठहराव है जिसके अन्र्तगत माल किराये पर दिया जाता है और जिसे क्रय करने का विकल्प क्रेता को समझौते की शर्तों के अन्तर्गत होता है तथा इसमें ऐसा ठहराव शामिल है जिसके अन्तर्गत-
- माल के स्वामी द्वारा किसी व्यक्ति को माल की सुपुर्दगी इस शर्त पर दी जायेगी कि वह व्यक्ति ठहराव की रकम आवधिक किश्तों में चुकायगा,
- माल का स्वामित्व क्रेता को तभी हस्तांतरित होगा जब अन्तिम किश्त का भुगतान हो जाएगा ,
- स्वामित्व हस्तांतरित होने के पूर्व क्रेता यदि चाहे तो ठहराव को समाप्त कर सकता है,
- किश्त का भुगतान करने में यदि क्रेता त्रुटि करता है तो विक्रेता लिखित सूचना देकर ठहराव को समाप्त कर सकता है।“
Hire Purchase System
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किराया क्रय प्रणाली की विशेषताएं या लक्षण(Features of hire purchase system)
- माल के कब्जे का हस्तान्तरण होता है स्वामित्व का नहीं।
- किश्तों में भुगतान किया जाता है।
- क्रेता को स्वामित्व का हस्तान्तरण अंतिम किश्त चुकाने के बाद होता है।
- क्रेता को माल के प्रयोग का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
- माल की देखभाल की जिम्मेदारी क्रेता की होती है।
- मरम्मत का दायित्व विक्रेता का होता है।
- क्षतिपूर्ति का दायित्व क्रेता का होता है यदि क्षति होती है तो।
- अनुबन्ध की समाप्ति का अधिकार होता है।
- अंतिम किश्त चुकाने के पूर्व यदि क्रेता माल बेच देता है तो उसे खरीदने वाले को श्रेष्ठस्वत्वाधिकार प्राप्त नहीं होता है।
- भाड़े पर विक्रय माना जाता है।
किराया विक्रेता (Hire Vendor) – किराया विक्रेता वह व्यक्ति होता है जो बिक्री के उद्देश्य से अपना माल क्रेता को सौंपता है और मूल्य का भुगतान निश्चित किश्तों में प्राप्त करता है।
किराया क्रेता (Hire Purchaser) – किराया क्रेता वह व्यक्ति होता है जो किराया विक्रेता से माल प्राप्त कर उसके मूल्य का भुगतान निश्चित अवधि में निश्चित किश्तों में करने का वचन देता है।
किराया क्रय मूल्य (Hire Purchase Price) – किराया क्रेता खरीदी हुयी वस्तु या सम्पत्ति के लिए जो मूल्य चुकाता है उसे किराया क्रय मूल्य कहते हैं। यह मूल्य किश्तों में चुकाया जाता है। यह मूल्य नकद मूल्य की अपेक्षा अधिक होता है क्योंकि इसमें अदत्त किश्तों का ब्याज तथा सम्पत्ति के रख रखाव व मरम्मत का व्यय भी शामिल होता है।
तत्काल भुगतान या अग्रिम भुगतान (Cash Down-payment) – किराया क्रय पद्धति के अन्तर्गत अनुबन्ध के समय या वस्तु की सुपुर्दगी के समय जो अग्रिम राशि दी जाती है उसे तत्काल भुगतान कहते हैं यह भुगतान नकद मूल्य का एक अंश होता है।
नकद मूल्य (Cash Price) – वह मूल्य जो क्रेता को नकद भुगतान पर देना होता है नकद मूल्य कहलाता है यह मूल्य किराया क्रय मूल्य की अपेक्षा कम होता है क्योंकि इसमें ब्याज की राशि शामिल नहीं रहती है।
यदि किराया क्रय मूल्य में से ब्याज की सम्पूर्ण राशि हटा दी जाये तो नकद मूल्य ज्ञात हो जाता है।
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किराया क्रय पद्धति के अन्तर्गत लेखांकन
किराया क्रय पद्धति (Hire Purchase System) के अन्तर्गत किराया क्रेता की पुस्तकों में किराया क्रय सम्बंधी व्यवहारों को लेखा करने के लिए निम्नलिखित दो पद्धतियां प्रयोग में लायी जाती हैं…....
- उधार क्रय या कुल नकद मूल्य पद्धति ( Credit Purchase Method) – इस विधि के अन्तर्गत क्रेता यह मानकर लेखा करता है कि उसे सम्पत्ति का उधार क्रय किया है और इसका लेखा करने के लिए जो विधि अपनायी जाती है उसे उधार क्रय विधि कहते हैं। इस विधि के अनुसार किराया क्रय अनुबन्ध पर हस्ताक्षर करते ही सम्पूर्ण रोकड़ मूल्य से सम्पत्ति खाता डेबिट किया जाता है और विक्रेता का खाता डेबिट किया जाता है इस कारण इस पद्धति को कुल नकद मूल्य पद्धति भी कहा जाता है।
- सम्पत्ति उपार्जन विधि Assets accrual Method) – सम्पत्ति उपार्जन से आशय सम्पत्ति पर स्वामित्व प्राप्त करना है यह पद्धति इस मान्यता पर आधारित है कि किराया क्रेता सम्पत्ति के नकद मूल्य के जितने भाग का भुगतान कर देता है वह सम्पत्ति के उतने भाग का स्वामी हो जाता है। अतः इस पद्धति के अनुबन्ध पर हस्ताक्षर करते समय क्रेता सम्पत्ति खाते को पूर्ण नकद मूल्य से डेबिट नहीं करता है, जितना भाग क्रेता प्रतिवर्ष चुकाता है उतने भाग से सम्पत्ति खाता डेबिट किया जाता है। इसलिए इसे सम्पत्ति उपार्जन विधि कहा जाता है।
Hire Purchase System
ACCOUNTING ENTRIES IN THE BOOKS OF HIRE PURCHASER
(CREDIT PURCHASES METHOD)
1-At the time of agreement-
Assets A/c Dr
To Vendor’s A/c
(Being Assets Purchased on H.P.S )
2- For Amount Paid on agreement-
Vendor’s A/c Dr
To Cash/Bank A/c
(Being Amount Paid on agreement)
3- For Instalment become due-
Interest A/c Dr
To Vendor’s A/c
(Being Instalment due)
4- For Instalment Paid on due date to vendor-
Vendor’s A/c Dr
To Cash/Bank A/c
(Being Instalment Paid on due date)
5- For charging Depreciation on assets-
Depreciation A/c Dr
To Assets A/c
(Being Depreciation charged on assets)
6- At the end of the year balance of depreciation account transferred to pofit and loss account-
Profit & Loss A/c Dr
To Depreciation a/c
(Being Depreciation Transferred to profit and loss account)
7– At the end of the year balance of Interest account transferred to pofit and loss account-
Profit & Loss A/c Dr
To Interest A/c
(Being Interest Transferred to profit and loss account)
ACCOUNTING ENTRIES IN THE BOOKS OF PURCHASER
(ASSETS ACCRUAL METHOD)
1-At the time of agreement-
No entry passed
2- For Amount Paid on agreement-
Assets A/c Dr
To Cash/Bank A/c
(Being Amount Paid on agreement)
3- For Instalment become due-
Assets A/c Dr
Interest A/c Dr
To Vendor’s A/c
(Being Instalment due)
4- For Instalment Paid on due date to vendor-
Vendor’s A/c Dr
To Cash/Bank A/c
(Being Instalment Paid on due date)
5- For charging Depreciation on assets-
Depreciation A/c Dr
To Assets A/c
(Being Depreciation charged on assets)
6- At the end of the year balance of depreciation account transferred to pofit and loss account-
Profit & Loss A/c Dr
To Depreciation a/c
(Being Depreciation Transferred to profit and loss account)
7– At the end of the year balance of Interest account transferred to pofit and loss account-
Profit & Loss A/c Dr
To Interest A/c
(Being Interest Transferred to profit and loss account)
ACCOUNTS TO BE OPENED IN THE BOOKS OF PURCHASER
(BOTH METHOD) 1. CREDIT PURCHASES METHOD 2. ASSETS ACCRUAL METHOD
1-Assets Account
2-Vendor’s Account
3-Interest Account
4-Depreciation Account
ACCOUNTING ENTRIES IN THE BOOKS OF VENDOR
1- For assets sold on HPS
Hire Purchaser’s A/c Dr
To Hire Sales A/c
(Being Assets sold on hire purchaser system)
2. For amount received on agreement
Cash/Bank A/c Dr
To Hire Purchaser’s A/c
(Being Amount received on agreement)
3. For Interest charged
Hire Purchaser’s A/c Dr
To Interest A/c
(Being Interest charged)
4- For amount of instalment received
Cash/Bank A/c Dr
To Hire Purchaser’s A/c
(Being Instalment received)
5- At the end of the year balance of Interest account transferred to pofit and loss account-
Interest A/c Dr
To Profit&Loss A/c
(Being Interest transferred to P&L A/c)
6- At the end of the year balance of Hire sales account transferred to Trading account-
Hire Sales A/c Dr
To Trading A/c
(Being Balance of hire sales account transferred to trading account)
ACCOUNTS TO BE OPENED IN THE BOOKS OF HIRE VENDOR
1-Hire Purchaser’s Account
2-Hire Sales Account
3-Interest Account
(Hire Purchase System)
Hire Purchase System
महत्वपूर्ण बिन्दु (Important Points)
- किराया क्रय प्रणाली के अन्तर्गत माल का कब्जा तो अनुबन्ध करते समय तो क्रेता को प्राप्त हो जाता है किन्तु माल का स्वामित्व अन्तिम किश्त चुकाने पर ही प्राप्त होता है।
- ब्याज की गणना अदत्त रोकड मूल्य पर की जाती है।
- किराया क्रय लेखे दो विधियों से तैयार किए जाते हैं।
- जब किश्त की राशि दी हो तो मूलधन तथा ब्याज ज्ञात कर लेना चाहिए और रोकड़ मूल्य में से भिन्न भिन्न तिथियों को जमा होने वाला मूलधन धटाते जाना चाहिए।
- जब मूलधन की राशि दी हो तो ब्याज निकालकर इसमें जोड लेना चाहिए तथा प्रत्येक किश्त की कुल राशि ज्ञात कर लेनी चाहिए।
- ह्रास निकालने के लिए सदैव रोकड़ मूल्य को आधार माना जाएगा।
- लाभ-हानि खाते से ब्याज का हस्तान्तरण वर्ष के अन्त में किया जाता है। चाहे ब्याज वर्ष में भिन्न भिन्न तिथियों पर देय हो।
- ह्रास का लेखा वर्ष के अन्त में किया जाता है।
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ब्याज की गणना (Calculation Of Interest)
किराया क्रय पद्धति में मूल्य का भुगतान किश्तों में किया जाता है प्रत्येक किश्त में माल का नकद मूल्य का भाग और ब्याज की राशि सम्मिलित रहती है। पुस्तकों में ब्याज का खाता अलग से खोला जाता है इसके लिए प्रत्येक किश्त के साथ दिए जाने वाले ब्याज की राशि की गणना करना अत्यंत आवश्यक है।
निम्न दशाओं में ब्याज की राशि की गणना अलग अलग प्रकार से की जाती है-
- जबकि ब्याज की दर दी गयी हो नकद मूल्य दिया हो, किश्तें दी गयी हों और किराया क्रय मूल्य दिया हो। किराया क्रय मूल्य या किश्तों का योग अधिक तथा नकद मूल्य कम हो।
- जबकि नकद मूल्य दिया हो और किश्तें दी हों और किश्तों का मूल्य और नकद मूल्य का जोड़ समान हो। अर्थात ब्याज अलग से देय हो।
- जबकि किश्तें दी गयी हों, ब्याज की दर दी गयी हो और किश्तों की राशि समान हो तथा उन्हें चुकाने के अवधि भी समान हो।
- जबकि किराया क्रय मूल्य दिया हो, नकद मूल्य दिया हो और किश्तें दी हों ब्याज की दर न दी गयी हो और किश्तों की राशि असमान हो तथा उन्हें चुकाने की अवधि भी असमान हो।
- जबकि किराया क्रय मूल्य दिया हो, नकद मूल्य दिया हो और किश्तें दी हों, ब्याज की दर न दी गयी हो और किश्तों की राशि तथा उन्हें चुकाने की अवधि समान हो।
- जबकि वार्षिकी तालिका का सन्दर्भ दिया हो, ब्याज की दर दी गयी हो, किश्तें दी गयी हों, परन्तु नकद मूल्य न दिया हो।
- जबकि किश्तें दी गयी हों, किन्तु नकद मूल्य और ब्याज की दर न दी गयी हो।
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